जैव विविधता के संरक्षण का अर्थ है, जैवमण्डल के मानवीय उपयोग का इस प्रकार प्रबन्धन करना कि यह वर्तमान पीढ़ी को अधिकतम लाभ प्रदान करे साथ ही यह भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सक्षम हो। मनुष्य ने अपने हित के लिए वातावरण को काफी प्रभावित किया। अपने लिए कृत्रिम वातावरण तैयार कर लिया परन्तु वह प्रकृति के नियमों को नहीं बदल सकता। पृथ्वी पर जीवन सौर ऊर्जा को संचित करने पर निर्भर है। प्रत्येक कार्बनिक, अकार्बनिक पदार्थ का एक प्राकृतिक चक्र होता है। इन नियमों को बदला नहीं जा सकता।
आज की सामाजिक, राजनैतिक समस्याएँ अप्रत्यक्ष रूप से पारिस्थितिकीय समस्याओं से जुड़ी हुई हैं-बढ़ती जनसंख्या, प्रकृति के भण्डारों का असीमित, अदूरदर्शी उपयोग, जंगलों का कटना, जल, वायु, प्रदूषण आदि सभी पारिस्थितिकी समस्याएँ हैं और इन्हीं समस्याओं से सामाजिक, राजनैतिक समस्याएँ सामने आती हैं। यदि हमें जीवित रहना है तो प्रकृति के नियमों का पालन करना सीखना चाहिए। हमें अपने वातावरण को आगे की पीढ़ी को जीवित रहने लायक बनाये रखने में अभी से गहन विचार-विमर्श करना अति आवश्यक है। अतः मनुष्य को मानवता के नाते प्रकृति (Nature) के साथ सामंजस्य बनाये रखने चाहिए तथा अपने स्थानीय समुदायों (Local communities) द्वारा जैव-विविधता का संरक्षण करना चाहिए।
जैव विविधता का संरक्षण
जैव विविधता का संरक्षण से तात्पर्य है- जैव विविधता का प्रबन्धन, परिरक्षण एवं पुनः पूर्व स्थिति को प्राप्त करना। जैव-विविधता के संरक्षण को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
(1) स्व-स्थाने संरक्षण (In situ conservation),
(2) बहिःस्थाने संरक्षण (Ex situ conservation)।
(1) स्व-स्थाने (इन-सीटू) संरक्षण (In situ Conservation)
जैव-विविधता को उसके प्राकृतिक पर्यावरण में संरक्षित करना, स्व-स्थाने संरक्षण कहा जाता है। अतः इस प्रकार के संरक्षाण के लिए प्राकृतिक वनों, चरागाहों, मैदानों, नदियों, झीलों आदि का भी संरक्षण आवश्यक होता है। इसके लिए इन प्राकृतिक आवास स्थानों को निषिद्ध क्षेत्र (Prohibited area) घोषित कर दिया जाता है। राष्ट्रीय उद्यान (National parks), अभयारण्य (Sanctuaries), जीवमण्डल आरक्षित क्षेत्र अथवा बायोस्फियर रिजर्व (Biosphere reserves), आई- भूमि अथवा वैटलेण्ड्स (Wet lands) अथवा रामसर स्थल (Ramsar sites), कच्छ वनस्पति अथवा मैन्यूव (Mangroves) आदि स्व-स्थाने संरक्षण के अन्तर्गत आते हैं।
(1) राष्ट्रीय उद्यान (National Parks)
राष्ट्रीय उद्यान वन्य जीवन एवं पारिस्थितिक तन्त्र दोनों के संरक्षण के लिए सुनिश्चित होते हैं। अतः इनमें शिकार करना एवं पशु चराना पूर्णरूपेण वर्जित होता है तथा इनमें व्यक्तिगत स्वामित्व के अधिकार नहीं दिये जाते। इनकी स्थापना एवं नियन्त्रण केन्द्र सरकार के अन्तर्गत होता है, परन्तु इनकी व्यवस्था सम्बन्धित राज्य सरकार के अधीन होती है। भारत में कुल 89 (सन् 2000 तक) राष्ट्रीय उद्यान हैं जो लगभग 37.530-76 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं अर्थात् ये देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 1-14 प्रतिशत भाग घेरे हुए हैं।
(2) अभयारण्य (Sanctuaries)
अभयारण्यों का उद्देश्य केवल वन्य जीवन का संरक्षण होता है अतः इनमें व्यक्तिगत स्वामित्व, लकड़ी काटने, पशुओं को चराने आदि की अनुमति इस प्रतिवन्ध के साथ दी जाती है कि इन क्रिया-कलापों से वन्य प्राणी प्रभावित न हों। इनको स्थापना एवं नियन्त्रण सम्बन्धित राज्य सरकार के अधीन होता है। भारत में लगभग 489 अभयारण्य हैं जिनका क्षेत्रफल 117,042-04 वर्ग किलोमोटर है अर्थात् ये देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 4-70 प्रतिशत भाग घेरे हुए हैं।
3) जीवमण्डल आरक्षित क्षेत्र (बायोस्फियर रिजर्व) (Biosphere Reserves)
सन् 1971 में यूनेस्को की मनुष्य एवं जीवमण्डल परियोजना (Man and l’iosphere Programme of UNESCO) के अन्तर्गत मानव कल्याण हेतु जीवमण्डल के संरक्षण की दृष्टि से जीवमण्डल आरक्षित क्षेत्रों की स्थापना का शुभारम्भ किया गया। देश में पहला जीवमण्डल आरक्षित क्षेत्र 1986 में नीलगिरी में स्थापित किया गया था।
आरक्षित क्षेत्र को निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया जाता है-
(i) केन्द्रीय अथवा कोर क्षेत्र (क्रोड क्षेत्र) (Core zone) – यह जीवमण्डल का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र होता है। यह क्षेत्र पूर्णतया वर्जित होता है। इस क्षेत्र के पारिस्थितिक तन्त्र में किसी भी प्रकार की मानवीय गतिविधियाँ नहीं होने दी जाती हैं।
(ii) प्रतिरोधक अथवा मध्यवर्ती क्षेत्र (Buffer zone) – मध्यवर्ती प्रतिरोधक क्षेत्र में सीमित मानव क्रिया-कलापों की अनुमति होती है। पर्यावरणीय शिक्षा तथा प्रशिक्षण, शोध कार्य, पर्यटन या प्रबन्धन से सम्बन्धित कार्य इस क्षेत्र में किये जा सकते हैं।
(iii) परिचालन अथवा आवान्तर क्षेत्र (Transi- tion zone) – परिधीय परिचालन क्षेत्र में अनेक प्रकार की मानव गतिविधियों की अनुमति होती है। इस क्षेत्र में खेतीबाड़ी, वानिकी एवं मनोरंजन और अन्य आर्थिक उपयोग जैसी गतिविधियाँ चलती रहती हैं।
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मई 2000 तक विश्व के 94 देशों में 408 जीव-मण्डल आरक्षित क्षेत्र थे। भारत में सर्वप्रथम 1986 में नीलगिरि जीवमण्डल को आरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया था उसके पश्चात् 1988 में नन्दा देवी जीवमण्डल को आरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया। भारत सरकार ने देश में 18 बायोस्फियर रिजर्व स्थापित किये हैं, जो राष्ट्रीय उद्यान या अभयारण्य की तुलना में प्राकृतिक आवास के बड़े क्षेत्र की रक्षा करते हैं। यूनेस्को (UNESCO) के मैन और बायोस्फियर (MAB) प्रोग्रामसूची के आधार पर इन 18 बायोस्फियर रिजर्व में से 10 बायोस्फियर रिजर्व के विश्व नेटवर्क (World Network of Biosphere Reserves) का एक हिस्सा हैं।
(4) पवित्र उपवन (Sacred Groves)
सेक्रेड ग्रूव या पवित्र उपवन पूजा स्थलों के चारों ओर पाये जाने वाले वन खण्ड हैं। इन्हें धार्मिक मान्यताओं एवं सामाजिक विश्वासों के आधार पर संरक्षण प्राप्त है। ये अत्यधिक व्यवस्थित वन के भाग होते हैं तथा यहाँ मानवीय गतिविधियाँ पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित होती हैं। ये भारत के कई भागों में पाये जाते हैं। इस तरह के पवित्र उपवन या आश्रय मेघालय की खासी तथा जयतिया पहाड़ी, राजस्थान की अरावली, कर्नाटक तथा महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट व मध्य प्रदेश की सरगूजा, चंदा व बस्तर क्षेत्र हैं।
(5) रामसर स्थल
रामसर ईरान का एक शहर है। 2 फरवरी, 1971 को यहाँ यूनेस्को (UNESCO) द्वारा, जिमसें 70 देशों ने भाग लिया, “आई भूमियों का संरक्षण तथा स्थायी उपयोग” (Conservation and sustainable use of wet lands) पर एक सम्मेलन बुलाया था।
इसी दिन आर्द्रभूमियों के संरक्षण के लिए वहाँ एक अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि हुई थी जिसे रामसर सम्मेलन अथवा रामसर सन्धि कहा जाता है। यह सन्धि विश्व के दुर्लभ व महत्वपूर्ण आर्द्रभूमियों को रामसर स्थल के रूप में चिन्हित करने के साथ ही अनेक अन्य संस्थाओं के साथ मिलकर आर्द्रभूमियों के संरक्षण के लिए जागरूकता का प्रसार करती है। इसीलिए 1997 से प्रत्येक वर्ष 2 फरवरी को विश्व आर्द्रभूमि दिवस के रूप में मनाया जाता है। अभी तक विश्वभर की 2062 आर्द्रभूमियों को रामसर स्थलों के रूप में चिन्हित किया गया है जो करीब 19,72,58,541 हेक्टेयर में फैले हुए हैं। भारत ने इस सन्धि पर 1981 में हस्ताक्षर किये और यहाँ के केवल 26 आर्द्रभूमियों को रामसर संरक्षित आर्द्रभूमियों का दर्जा हासिल है जो 6,89,131 हेक्टेयर में फैली है।
(2) बहिःस्थाने (एक्स-सीटू) संरक्षण (Ex situ Conservation)
जीवों का संरक्षण स्व-स्थाने (In situ) सबसे अच्छी तरह होता है अर्थात् जहाँ वे प्राकृतिक रूप में पाये जाते हैं। एक वृहत संख्या में जीवों का स्व-स्थाने संरक्षण अल्पतम प्रयत्न एवं खर्च करके किया जा सकता है। हालांकि जहाँ आवास विशेष रूप खण्डित हैं तथा दोहन से असुरक्षित हैं, स्व-स्थाने संरक्षण सम्भव नहीं है। अनेक उष्ण कटिबन्धीय जातियों के लिए जहां आवास विशेष रूप से खंडित है तथा दोहन से असुरक्षित है, स्वस्थाने संरक्षण संभव नहीं है। अनेक उष्णकटिबंधीय जातियों के लिए जहां आवासों का क्षय बहुत अधिक है, यह सत्य है। वानस्पतिक उद्यानों एवं विशेष वृक्ष संग्रहण में बहिःस्थाने एकमात्र सम्भव समाधान है। इस प्रकार का संरक्षण उद्यान (पादपों के लिए) या चिड़ियाघर ( प्राणियों के लिए) आदि के लिए उपयुक्त है।
बहिः स्थानीय संरक्षण में जीवों को उनके मूल स्थान से हटाकर अन्यत्र संरक्षित किया जाता है।