जैवप्रौद्योगिकी अथवा जैवतकनीकी जीव विज्ञान की एक दक्ष शाखा है जिसकी व्युत्पत्ति जैविक विज्ञान, रसायन विज्ञान, भौतिकीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी उपलब्धियों के समेकन से हुई है। जैवप्रौद्योगिकी का उपयोग मानव विकास से सम्बन्धित सभी क्षेत्रों; जैसे- स्वास्थ्य, चिकित्सा, कृषि, उद्योग, पर्यावरण आदि में किया जा रहा है। इनमें से स्वास्थ्य एवं कृषि से सम्बन्धित जैवप्रौद्योगिकी क्रियाकलाप सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मानवीय स्वास्थ्य सुरक्षा (Human health care) से सम्बन्धित प्रत्येक क्षेत्र; जैसे- रोग पहचान (Disease detection), रोग निरोधन (Disease prevention), औषध विज्ञान (Pharmaceutical) आदि के विकास में जैवप्रौद्योगिकी का अपना विशिष्ट स्थान है।
कृषि क्षेत्र में जैवतकनीकी के अनुप्रयोग (Applications of Biotechnology in Agriculture)-
जैवतकनीकी द्वारा फसलों का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है तथा उर्वरकों के प्रयोग को कम किया जा सकता है। रोगजनकों के प्रति पादपों में रोग प्रतिरोधकता को बढ़ाकर आर्थिक महत्व की फसलों के पोषक मूल्यों को बढ़ाया जा सकता है कृषि के क्षेत्रों में जैव तकनीक के विभिन्न अनुप्रयोगों के उदाहरण निम्न प्रकार हैं–
(1) नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Nitrogen fixation) –
जैव-तकनीकी द्वारा धान्यों (Cereals) की फसलों के पौधों की जड़ों में मूल ग्रन्थिकाएँ (Root nodules), उत्पन्न करके उनसे नाइट्रोजन स्थिरीकरण कराया जा सकता है। लेगहोमोग्लोविन (Laghaemoglobin) के जीन को धान्यों के पौधों में प्रवेश कराकर ऐसा किया जा सकता है। इस जीन के प्रभाव से क्लोरोप्लास्ट (Chloroplasts) को नाइट्रोप्लास्ट (Nitroplast) में परिवर्तित किया जा सकता है जो नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक होते हैं।
(2) प्रकाश-संश्लेषण (Photosynthesis) –
पौधों का आर्थिक मूल्य उनकी प्रकाश-संश्लेषण क्षमता पर आधारित होता है। वैज्ञानिकों ने मटर में प्रकाश-संश्लेषण को नियन्त्रित करने वाले एन्जाइम (RUBISCO) के जीन को तम्बाकू के पौधों में स्थानान्तरित करके उनकी प्रकाश-संश्लेषण दर में वृद्धि की है। अन्य प्रकार के पौधों में इस विधि द्वारा प्रकाश-संश्लेषण क्षमता में सुधार किया जा सकता है।
(3) बीजों की प्रोटीन्स में पोषक पदार्थों का सुधार (Improvement in the nutritional content of seed proteins)-
अनेक फसली पौधों के बीजों में कुछ आवश्यक अमीनो अम्लों का अभाव रहता है। अतः वैज्ञानिकों ने इस तकनीक द्वारा वांछित अमीनो अम्लों को उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की है। इस तकनीक द्वारा बीजों की प्रोटीन मात्रा एवं गुर्गों में सुधार किया जा सकता है। इसके द्वारा जन्तुओं की प्रोटीन्स के जीन फसल वाले पौधों में स्थानान्तरित किये गये हैं।
(4) प्रकाश-श्वंसन (Photo-respiration) –
प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि ऑक्सीजन की अधिकता में C3 पादपों में प्रकाश-श्वसन के कारण शुद्ध जैवभार के निर्माण में 50% तक की गिरावट आ जाती है, क्योंकि राइबुलोज डाइफॉस्फेट (RuDP) कार्बोक्सीलेज एन्जाइम ऑक्सीज़न से क्रिया करके प्रकाश-श्वसन का क्रियाधार ग्लाइकोलिक आल (Glycolic acid) बनाता है। जैव-तकनीकी की सहायता से इस एन्जाइम की कोडिंग (Coding) जीन द्वारा करायी जा सकती है जिसके बाद यह केवल कार्बन डाइऑक्साइड से संयोग करता है अर्थात् ऑक्सीजन से क्रिया नहीं करता है और इस प्रकार C3 पादपों में प्रकाश-श्वसन को दूर करके उनके जैवभार में वृद्धि की जा सकती है।
(5) फसल सुरक्षा सुधार (Improvement of crop protection) –
प्रतिवर्ष संसार की फसलों का लगभग 25 प्रतिशत उत्पादन विभिन्न प्रकार के कीटों एवं रोगजनकों द्वारा नष्ट हो जाता है। जैव-तकनीकी द्वारा पादपों की उन्नत किस्मों का विकास किया गया है जिन पर कीट एवं रोगजनकों का आसानी से आक्रमण नहीं होता है।
पौधों में अनेक प्रकार के रोग व्यर्थ के जीन द्वारा उत्पन्न हो सकते हैं, जिन्हें इस तकनीकी द्वारा पृथक् किया जा सकता है। मक्का में कोशिकाद्रव्यीय नर बन्ध्यता (Cytoplasmic male sterility) तथा रोगधारणता (Susceptibility) के जीन माइटोकॉण्ड्रिया के प्लास्मिड्स में पाये जाते हैं, ये व्यर्थ के जीन होते हैं, जैव-तकनीकी द्वारा इन जीन्स को पृथक् किया जा सकता है तथा पादपों को रोगी होने से बचाया जा सकता हैं।
फसल सुरक्षा में सुधार अग्र प्रकार से किया जा सकता है-
(a) विषाणु रोगों के लिए प्रतिरोध (Resistance to viral diseases) – जैवतकनीकी द्वारा विषाणु रोगों का नियन्त्रण पादपों को प्रतिरोधी बनाकर किया जा सकता है। एबेल एवं उसके सहयोगियों (Abel et. al., 1980) ने तम्बाकू मोजेक विषाणु (TMV) के आवरण-प्रोटीन जीन (Coat-protein gene) को तम्बाकू के पौधों में स्थानान्तरित करने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने बताया कि इस प्रकार उत्पन्न तम्बाकू के पौधों में TMV संक्रमण 4-47% तक कम हो जाता है।
(b) खरपतवारनाशियों के लिए प्रतिरोध (Resistance to weedicides) –
ग्लाइकोफॉस्फेट (Glycophosphate) का प्रयोग खरपतवारनाशी के रूप में किया जाता है जिसके प्रभाव से फसली पौधे तथा खरपतवार (Weeds) दोनों ही नष्ट हो जाते हैं। अतः जैव-तकनीकी की सहायता से ग्लाइकोफॉस्फेट प्रतिरोधी आर्थिक महत्व के पौधों को उत्पन्न किया जाता है। साल्मोनेला टाइफीम्यूरियम (Salmonella typhimurium) से ग्लाइकोफॉस्फेट प्रतिरोधी उत्परिवर्तित जीन (Mutant gene) को R, प्लास्मिड की सहायता से तम्बाकू की कोशिकाओं में प्रविष्ट कराया गया है। इस विधि से उत्पन्न पौधे ग्लाइकोफॉस्फेट के लिए 3-4 गुना प्रतिरोध प्रदर्शित करते हैं।
(c) पीड़कों के लिए प्रतिरोध (Resistance to pests)- आर्थिक महत्त्व की फसलों को अनेक पीड़क (Pests) भारी मात्रा में हानि पहुँचाते हैं। जैव-तकनीकी की सहायता से अब अनेक पीड़करोधी पौधों का विकास किया गया है।
(6) जैव-उर्वरकों का विकास (Development of biofertilizers) –
जैव-तकनीकी की सहायता से नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं एवं सायनोबैक्टीरिया को तैयार किया गया है। नाइट्रोजन स्थिरीकरण के लिए अनेक जीवाणुओं; जैसे- क्लॉस्ट्रीडियम (Clostridium), क्लेबसीला (Kleb ella), एजोस्पाइरिलम (Azospirillum) तथा रोडोस्पाइरूलम (Rhodospirullum) को प्रयोग में लाए जाने के लिए महत्वपूर्ण कार्य किये जा रहे हैं।
(7) जैव नियन्त्रण कारक (Bio-control agents) –
कीटों के जैव नियन्त्रण के लिए उपयोग में लाये जाने वाले सूक्ष्मजीवोंको जैव-कीटनाशी (Bio insecticides) कहते हैं। जैव-तकनीकी द्वारा जैव कीटनाशियों को उत्पन्न किया जा सकता है। बैसिलस थूरिन्जिएन्सिस (Bacillus thuringiensis) पर आधारित जैव-कीटनाशी का व्यापक स्तर पर प्रयोग किया जा रहा है।
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